अंतरात्मा की आवाज़ । (सौजन्य-गुगल) प्यारे दोस्तों, प्रत्येक कलाकार के जीवन में, स्टेज पर जीवंत अभिनय (Live Performance) के दौरान कई कड़वे-मीठे अनुभव एवं हास्यास्पद-गंभीर घटनाएँ घटती रहती है । करीब ४५ साल के, मेरे स्टेज-अनुभव के दौरान, स्टेज पर, मुझे भी, कई बार ऐसे ही कुछ कड़वे-मीठे रोचक अनुभव हुए हैं, जिन्हें आप सभी विद्वान दोस्तों के साथ, एक के बाद एक, बांटने के लिए, मैं आपकी रजामंदी चाहता हूँ । हालांकि, मेरे अनुभव कड़वे हो या मीठे, मैंने हमेशा इन्हें बड़ी ही खेल भावना के साथ, सकारात्मक ढंग से लिया है । मैं उम्मीद करता हूँ, यह आलेख श्रेणी आपको अवश्य पसंद आएगी..!! ========== अंतरात्मा की आवाज़ । दोस्तों, ये सन-१९७० का वाक़या है । एक बार, अहमदाबाद के टाउन हॉल में, मेरे एक परम मित्र के ज़ोर देने पर, मित्रता-मोह वश होकर, एक बिलकुल नये नाट्य लेखक-निर्माता-दिग्दर्शक-अभिनेता (Yes,All in one..!!) के नाटक में, संगीत (सेवा) देने का, मैंने फैंसला किया । ये, नये नाट्य लेखक-निर्माता-दिग्दर्शक-अभिनेता महाशय ने, इसी नाटक के कुछ शॉ, गाँव के देहाती इलाकों में, अनपढ़ मगर, सरल-भोले दिलवाले, कुछ गिने-चुने दर्शक के बीच आज़माकर, उनसे अच्छी प्रतिक्रिया मिलने पर, उत्साहित होकर, अहमदाबाद की किसी सामाजिक संस्था को मुफ़्त के भाव में पूरा शॉ बेच कर, पहली बार शहर के शिक्षित दर्शकों के सामने, इस नाटक को आज़माने का साहस किया था..!! नाटक का शॉ पहली बार, किसी शहर में आज़माया जा रहा था अतः,स्वाभाविक ढंग से, नाटक के सभी कलाकार का उत्साह अपनी चरम सीमा पर था । रात्रि के ९.०० से १२.०० का शॉ था । हॉल में स्टेज का पर्दा गिरा हुआ था,इसीलिए नाटक के सभी कलाकार, बिना वजह बार-बार स्टेज पर जाकर,ज़रूरत से ज्यादा जोश दिखाते हुए, अपनी भूमिका (पात्र) के रटे हुए संवाद का अभ्यास करने में लगे हुए थे । नाटक के प्रमुख किरदार -अभिनेता तो, इतने उत्तेजित हो उठे थे कि, नाटक शुरू होने की आखिरी घंटी (Bell) बजने पर, पर्दा उठने के कुछ क्षण पहले, उन्होंने जब मुझ से हाथ मिलाया, तब मुझे लगा कि, उनका बदन बिना वजह बहुत कांप रहा था..!! इतना ही नहीं, पर्याप्त दर्शकगण उपस्थित हुआ कि नहीं, ये देखने के लिए, प्रमुख किरदार -अभिनेताश्री, अपने मेकअप के कारण, लाल टमाटर जैसे चेहरे के साथ, रात्रि के आठ बजे से ही, हॉल के बाहर, कई बार चहलक़दमी भी कर आये थे..!! आखिर में, अपनी भारतीय परंपरा और समय के अनुसार, रात्रि के क़रीब पौने दश बजे, स्टेज पर से पर्दा उठ ही गया..!! मैंने भी मेरे साथी वाद्यवृंद के साथ, स्टेज के एक कोने में स्थान ग्रहण किया । नाटक का कथा तत्व, सामाजिक दूषण, दहेज प्रथा विरोध पर आधारित था, इसीलिए नाटक के संवाद भी ज़ोरदार-शानदार थे । उपर से, नाटक में जगह-जगह पर, कॉमेडी का तड़का, ऐसी बख़ूबी, किया गया था कि, सारे दर्शक, लोट-पोट हँसने पर मजबूर हो गये थे । हम सब वाद्य कलाकारों को भी, नाटक के हास्य,करुण,गंभीर जैसे विविध रस-भाव को संगीत में ढालने में बहुत आनंद आ रहा था..!! नाटक द्विअंकी था और नाटक के प्रथम अंक की सफलता का अंक तब मालूम पड़ा जब, नाटक के द्वितीय अंक से पहले, मध्यांतर में (Interval) नाटक देखने आए, कुछ प्रतिष्ठित सामाजिक संस्था के सदस्य एवं प्रमुख द्वारा, नाटक के कुछ और शॉ का एडवांस बुकिंग हो गया..!! बस,फिर तो क्या था? हमारे `ऑल इन वन`हीरो के आनंद की कोई सीमा न रही और मानो वह हीरोसाहब अब तो आसमान में उड़ने लगे..!! नाटक का दूसरा अंक शुरू हुआ और इसी के साथ, हम सब बाकी कलाकार की कठिनाई भी शुरू हो गई..!! नाटक के दूसरे और अंतिम हिस्से में, कथा कुछ ऐसी थीं कि, ज्यादा दहेज़ पाने की लालच में, ससुरालवालों के द्वारा, बहु के साथ किए गए मानसिक उत्पीड़न से त्रस्त होकर, थक-हार कर, बहु ने,आत्मघात करने का निष्फल प्रयास किया । अस्पताल के बिस्तर पर पडी और दर्द से कराहती बहु का मरणोपरांत निवेदन दर्ज करने के लिए, हमारे `ऑल इन वन हीरो` पुलिस इन्स्पेक्टर के किरदार में, अस्पताल पहुँचे । बहु ने, सास-ससुर और पति के विरूद्ध, दहेज़ प्रताड़ना करने का आरोप लगाते हुए, अपना बयान दर्ज करवाया । बहु का बयान दर्ज करने के पश्चात, अपने खास पुलिसिया कठोर अंदाज़ में, अपने हीरो ने जैसे ही, अपराधी सास-ससुर और पति की कड़ी पूछताछ प्रारंभ की, इसी के साथ हीरो इन्स्पेक्टर साहब के प्रत्येक ज़ोरदार संवाद पर, पूरा हॉल तालिओं की गड़गड़ाहट से गूँजने लगा..!! ब..स, ब..स, ब..स..!! अब तो, नाटक में नाट्य तत्व की पराकाष्ठा आ गई थी..!! हॉल में उपस्थित सारे दर्शकों ने,तालियों के गड़गड़ाहट से, हीरो का हौसला बढ़ाते हुए,अपने हीरो इन्स्पेक्टर को मानो हाथों हाथ उठा लिया था..!! अब मुझे तो डर लग रहा था कि, पहले से ही अत्यंत उत्साहित हीरो, कहीं कोई ग़लती करके, अब तक सफल रहे नाट्य शॉ का, कहीं गुड़गोबर न कर दें..!! पर होनी को कौन टाल सकता है? बदकिस्मती से मेरी आशंका सत्य हो गई..!! नाटक के विलन किरदार, अपराधी सास-ससुर-पति की पूछताछ को और सख़्त करके, दर्शकों की तालियाँ बटोरने के चक्कर में, हमारे हीरो इन्स्पेक्टर, अपने ही लिखे-रटे हुए सारे संवाद बार बार भूलने लगे..!! यह देखकर नेपथ्य में से अनुबोधक (prompter) ने अपना दिमाग दौड़ाया और एक समर्पित कलाकार की भाँति, हीरो उर्फ़ निर्माता उर्फ़ दिग्दर्शक उर्फ़ इन्स्पेक्टर को असली स्क्रिप्ट में से, धीरे से फुसफुसाते हुए, असली संवाद याद कराने लगा..!! पर हीरो तो, अपने आप को हमेशा हीरो ही समझता है ना? अपने ये हीरो भाईसाहब भी, अनुबोधक के फुसफुसाते स्वर में उच्चारित संवाद को नज़र अंदाज़ करके, अत्यंत उत्तेजित होकर, तत्काल अपने नये संवाद बना कर पेश करने लगे..!! स्टेज के पिछे, यहाँ समर्पित अनुबोधक कलाकार को, ये महसूस हुआ कि, उसके बिलकुल धीरे से फुसफुसाने के कारण, हीरो साहब को शायद नेपथ्य से संवाद सुनाई नहीं देते होंगे, अतः अनुबोधक ने फुसफुसाना बंद करके, ज़रा उँची आवाज़ में, हीरो को संवाद याद कराना शुरू किया..!! बस, फिर क्या कहना? अब तक, अपने नये संवाद बना कर पेश कर रहे हीरो को, अनुबोधक की आवाज़ ख़लल सी लगने लगी और दर्शकों की ज्यादा सेज्यादा तालियाँ बटोरने के चक्कर में, हीरो अब न तो नये संवाद बना पा रहा था, ना ही वह स्क्रिप्ट के असली संवाद याद कर पाता था? अभी तक, विलन सास-ससुर-पति के कठोर बर्ताव से त्रस्त होकर, आपघात करने, मरने पर उतारू हुई, बहु को अचानक सभी अपराधीओं को मदद करते देख, सारे दर्शक सीटियाँ बजाकर, ठहाके मारकर हँसने, मज़ाक करने और ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगे..!! इधर, हम, संगीत कलाकार की हालत भी खस्ता हो गई थी क्योंकि, हम सब वादक ये समझ नहीं पा रहे थे कि, कौन सा किरदार, क्या बोल रहा है और हमें किसके संवाद पर क्या बजाना चाहिए? थक हार कर, सारे वाद्य कलाकारों ने वाद्य बजाना ही छोड़ दिया..!! यहाँ नाटक के हीरो के मन में, ये बैठ गया कि, सारे नाटक की बदनामी सिर्फ और सिर्फ अनुबोधक की बेवकूफी की वजह से हुई है? नाटक का मालिक-निर्माता-दिग्दर्शक-हीरो, स्टेज के पिछे बैठे अनुबोधक (प्रोम्प्टर) के पास भागता हुआ पहुँचा और क्रोध से तिल-मिला कर बोला, " ये सब तेरे कारण हुआ है, तेरी ये असली स्क्रिप्ट को चूल्हे में डाल दे..!! और हाँ, आइन्दा, तुम मुझे भीतर से, कभी प्रोम्प्ट मत करना, अब खुद अपने रचे गए संवाद से ही, मैं अपना किरदार निभाऊंगा..!! नाटक की,ज्यादा फ़ज़ीहत न हो इसी वजह से, किसी समझदार कलाकार ने नाटक का पर्दा गिरा दिया? मगर, क्या नाटक यहाँ समाप्त हो गया? शायद नहीं..!! नाट्य गृह से वापस, घर पर लौटते समय, पूरे रास्ते, मैं सोच रहा था कि, नाटक का ऐसा बे-हाल क्यों हुआ? क्या अभिमानी हीरो ने, नाटक के नियमों का उल्लंघन किया था? क्या कला और स्टेज का भी अपमान हुआ था? ज्यादा सोचने पर मुझे, सुप्रसिद्ध दिग्दर्शक श्रीऋषिकेश मुखर्जी की सुपरहिट फिल्म,` आनंद` का वह मशहूर संवाद याद आ गया, " बाबु मोशाय, हम सब तो रंगमंच की कठपुतलीयाँ हैं, जिनकी ड़ोर उपर वाले के हाथ में हैं..!!" अगर हम सब, सकारात्मक सोचें तो, पता चलेगा कि..!! १. ये सारा संसार एक रंगमंच है और हम सब नाटक के अलग-अलग किरदार है..!! २. हमको एक निश्चित स्क्रिप्ट के तहत, ईश्वर के तय किए गए संवाद ही बोलने का आदेश देकर, संसार के इस रंगमंच पर अपना किरदार ईमानदारी से निभाने के लिए, हमें भेजा गया है..!! ३. इतना ही नहीं, हम अगर कभी, ईश्वर के तय किए गए संवाद भूल कर, अभिमान से लिप्त होकर, अपने बनाये हुए बेतुके संवाद बोलने लगते हैं, तब हमारे भले के लिए, हमारे भीतर से, हमारी आत्मा की आवाज़, समर्पित अनुबोधक (प्रोम्प्टर) बनकर, असली संवाद हमें याद कराती है..!! सच पूछो तो, हिन्दी फिल्म,`पड़ोसन` के महमूद की तरह हमें, अपने आपसे कहना चाहिए," या घोड़ा बोलो या चतुर बोलो?" चलो,आज हमारी आत्मा की आवाज़ को, हम सब द्रढता के साथ, कह देते हैं," हम तुमको छोड़ेगा नहीं जी, हम स्क्रिप्ट से भटकेगा नहीं जी, हम स्क्रिप्ट बराबर पकड़ कर चलेगा जी..!!" ये बात तो अनुभव सिद्ध है कि, अपनी तय स्क्रिप्ट अनुसार संवाद बोलने वाले और अपने किरदार को ईमानदारी से निभाने वाले बंदे को, भगवान कभी बदनाम नहीं होने देते । वैसे बॉस, आप का शॉ सुपर हिट है कि, सुपर फ़्लॉप? मार्कण्ड दवेः- दिनांक-०२-०५-२०११. |
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[Gujarati Club] स्टेज के कड़वे-मीठे अनुभव/श्रेणी-१. अंतरात्मा की आवाज़ ।
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